थोड़ा और ऊपर चढ़ा के,
अनुभव के थैले का बोझ
थोड़ा और बढ़ा के।
हम आगे की ओर मुख किए,
पीछे की ओर बढ़ाते जा रहे हैं कदम।
आगे-आगे कहते हुए,
पीछे-पीछे बढ़ते जा रहे हैं हम।
जीवन पथ के इस मोड़ पर
हम दिशा-ज्ञान से क्यों खो गए,
आख़िर हम इतने समझदार क्यों हो गए?
एक धोखा खाकर हमने,
सारे रिश्ते तोड़ दिए।
एक बार क्या हार हुई,
हमने प्रयास करने ही छोड़ दिए।
बदतमीज़ी, बदसलूकी सीखकर
हमने ज़माने में ख़ुद को ढाला।
और ज़माने ने भी ऐसा धोखा दिया
कि ख़ुद तलाश में पड़ गया वो मदद करने वाला।
अनुभव के थैले को कंधे पर डालने के बाद
जिम्मेदारियों के बोरे कंधे से क्यों खो गए,
आख़िर हम इतने समझदार क्यों हो गए?
लाख गुणा बेहतर था वो वक़्त
जब हमने दुनिया नहीं देखी थी।
जब कर्म के घटे में
न पाप था, न नेकी थी।
पर एक विश्वास था उस वक़्त,
एक भरोसा था सब पर।
एक सपना था सुख बाँटने का,
जो सदा रहता था तत्पर।
जीवन के नाटक में
हम उस किरदार से क्यों खो गए,
आख़िर हम इतने समझदार क्यों हो गए?
सच है, वो वक़्त, वो ज़माना,
अब चल गया है।
आज इंसान और उसके रहने-कहने
का अंदाज़ भी बदल गया है।
इतना बदल गया है,
कि हर कोई इस सोच में खो गया।
न जाने कैसे इमानदार बेवकूफ,
और चालाक समझदार हो गया!
ज़माना तो ठीक है,
पर हम उस पक्के ज़बान से क्यों खो गए,
आख़िर हम इतने समझदार क्यों हो गए??