कुछ अल्फ़ाज़ों ने लिख दिए,
कुछ लफ़्ज़ कह गए।
पर शब्द जो दिल में थे,
सो दफ़्न ही रह गए।
सोचता हूँ कि क्यूँ आख़िर,
हर आह आवाज़ ढूँढती है।
चीख़ते तो तुम हो,
पर न जाने क्यों इस वादी में,
ख़ामोशियाँ मेरी गूँजती है।
लब पे ऊँगलियाँ रख दूँ, तो
कई इसे मेरी कमज़ोरी,
कई मेरा मत समझ लेते हैं।
पर क्या करूँ-
न कहता हूँ तो कोई समझता ही नहीं,
कह देता हूँ तो लोग ग़लत समझ लेते हैं।