ग़ुर्बत की कड़कड़ाती धूप में,
ज्यों हीरे और मोती बरसे।
जैसे होड़ लगी हो नीचे आने की,
ऊपरी कालिमा के डर से।
जैसे किसी ने आसमाँ फ़तह कर,
ख़ुशी के आँसू बहाए हो।
या फिर ऊपर वाले ने ही
कुछ नज़राने बरसाए हो।
आगमन से पहले ही इतनी बुलंदी,
कि डर से छिप गया सूरज बादलों के पीछे।
ढोल बजे, आतिशबाज़ियाँ चलीं,
और सूर्य राज का तख़्तापलट हो गया नीचे।
उधर हल-वाहा की सभी मुश्किलें 'हल' हो गईं,
और माटी के गुलामों के लिए,
बाहर की राह सरल हो गई।
झुर्रियों से भरी ज़मीं की,
अचानक ही जवानी लौट आई।
साथ ही, पेड़-पौधों में भी
इक हरित-क्रांति ले आई।
न जाने ऐसा क्या साथ ले आई
वो बारिश की बूँदे,
कि हर कोई खड़ा है हाथ फैलाए, आँखें मूँदे।
कोई रहमत बरस रही हो
या बख़्शिश की बारिश हो,
ऐसा भी क्या उफान मचा है,
मानो सब पक्की साज़िश हो।
एक मौसम जो खराब था,
एक सनसनाता सन्नाटा जो छाया था।
एक बच्चे की किलकारी जो गूँजी थी,
एक रंगीन लकीर कोई आसमाँ में खींच आया था।
सातों आसमाँ इक-इक रंग ले गए,
मानो बाण चला इंद्र-
धनुष छोड़ चले गए।
Waoo!!! 'you' write so fucking good ... I may start reading Hindi poems from now on.
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