बस ख़ामोशी ही गूँज रही थी,
वो वादी ही कुछ ऐसी थी।
क्या कहता, क्या बयां करता,
वो बात ही कुछ ऐसी थी।
ये दिल है, कंधा नहीं,
अब और बोझ सह नहीं सकता।
कुछ और पल अब बिन कहे,
मैं रह नहीं सकता।
वो मीत मेरा था,
बेचारा मुश्किल में था रह रहा।
मैंने मदद के लिए हाथ बढ़ाया था,
पर वह समझ बैठा कि मैं हाथ उठा
उसे अलविदा कह रहा।
मुझे लगा कुछ तो ग़लत है,
इक 'ग़लत'फ़हमी ज़रूर है।
पर वो मुँह मोड़कर कहता है,
"देखो! इसे ग़ुरूर है।"
हाँ! हाँ, मुझे ग़ुरूर है!
पर नहीं वो इस शाह-ए-शरीर पर,
जिसे इक दिन ख़ाक़ हो जाना है।
नहीं दौलत-ए-दाय पर,
जिसे फिर यहीं छोड़ जाना है।
नहीं नामो-शोहरत पर,
जो अभी अदना भी नहीं।
नहीं इक ख़्वाब-सी किस्मत पर,
जो कभी मिली ही नहीं।
हाँ, मुझे ग़ुरूर है!
सच तो तुम कभी मानोगे नहीं,
मैं ही हार मानता हूँ।
हाँ, मुझे ग़ुरूर है!
हाँ, मुझे ग़ुरूर है!
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